झारखंड सरकार द्वारा पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के उद्देश्य से तैयार किया गया आरटीआई ऑनलाइन पोर्टल अब खुद ही सवालों के घेरे में आ गया है। सूचना एवं ई-गवर्नेंस विभाग द्वारा दिए गए एक आरटीआई जवाब में खुलासा हुआ है कि इस पोर्टल को बनाने और शुरू करने में कुल ₹37,14,600 खर्च किए गए, लेकिन इसके बावजूद आज तक सिर्फ 37 विभाग ही इससे जोड़े जा सके हैं। जबकि राज्य में सैकड़ों सरकारी विभाग और संस्थाएं हैं, जो इस सिस्टम का हिस्सा बन सकती थीं। ये आंकड़ा ई-गवर्नेंस के दावों पर सीधा सवाल खड़ा करता है।
इस पोर्टल को प्रभावी ढंग से लागू करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए सरकार की ओर से कई बार संबंधित विभागों को पत्र भेजे गए, लेकिन इन प्रयासों का कोई खास असर नहीं दिखा। दस्तावेजों से साफ होता है कि विभागों को बार-बार रिमाइंडर भेजे गए, लेकिन अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। इससे साफ जाहिर होता है कि राज्य सरकार की योजनाएं सिर्फ कागज़ों तक सीमित रह गई हैं और जमीन पर इनका क्रियान्वयन बेहद कमजोर है। जब पोर्टल को चलाने के लिए ही संबंधित विभाग सक्रिय नहीं हैं, तो जनता को सूचना का अधिकार कैसे मिलेगा?
आरटीआई के जरिए यह भी सामने आया कि इस पोर्टल के बजट, स्वीकृति प्रक्रिया और अब तक के कुल खर्च की पूरी जानकारी भी साझा नहीं की गई है। सिर्फ कुछ सूचनाएं दी गईं, जिससे यह साफ हो गया कि सरकार खुद भी पूरी पारदर्शिता के साथ जानकारी नहीं दे रही है। जब पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए बना पोर्टल ही जानकारी देने में असफल है, तो यह पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है। यही नहीं, यह मामला यह भी दिखाता है कि योजनाएं बनाना और उन पर करोड़ों खर्च करना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है उन्हें जमीन पर उतारना।
आरटीआई पोर्टल की यह स्थिति झारखंड में डिजिटल गवर्नेंस की वास्तविकता को उजागर करती है। करोड़ों की योजनाएं और बड़े-बड़े वादों के बावजूद जब केवल 37 विभाग ही ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से जुड़ पाए हैं, तो आम जनता को लाभ मिलने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? यह पूरी व्यवस्था यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह सब सिर्फ दिखावे के लिए था या फिर योजनाओं की निगरानी और जिम्मेदारी तय करने का तंत्र ही कमजोर है? झारखंड में ई-गवर्नेंस की यह हालत कहीं ना कहीं जवाबदेही और पारदर्शिता की गंभीर कमी को दर्शाती है।



