क्या आपने कभी सोचा है कि देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक मशीनरी – चुनाव – को चलाने वाले आंकड़े कभी अधूरे हो सकते हैं? और अगर हम कहें कि सालों से एक अहम आंकड़ा, जिसे विपक्ष ने अपना हथियार बना लिया था, अब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हाथ में ले लिया है? जी हां, जातिगत जनगणना – वो मुद्दा जिसे राहुल गांधी और विपक्ष लगातार बीजेपी पर दागते आ रहे थे, अब खुद प्रधानमंत्री ने उस पर मुहर लगाकर सियासी मोर्चे पर बड़ा उलटफेर कर दिया है। चुनाव से ठीक पहले इस फैसले से न केवल बिहार का चुनावी गणित बदलने वाला है, बल्कि जातीय राजनीति की दशा और दिशा पर भी गहरी छाया पड़ने जा रही है।
विपक्ष लंबे समय से इस बात को उठा रहा था कि देश में पिछड़े वर्गों की संख्या तो अधिक है, लेकिन उन्हें शासन, शिक्षा और रोजगार में हिस्सेदारी उतनी नहीं मिल रही। राहुल गांधी हर मंच से कहते रहे – “जनगणना कराओ, हक दिलाओ”। उनका दावा था कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो न सिर्फ जातिगत जनगणना होगी, बल्कि आरक्षण की वर्तमान 50% की सीमा भी तोड़ दी जाएगी। लेकिन अब एनडीए सरकार द्वारा जाति जनगणना की स्वीकृति ने विपक्ष के तीरों को कुंद कर दिया है। अब सवाल है – क्या राहुल गांधी से उनका सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा छिन गया है?
अगर जातिगत जनगणना होती है तो पहली बार यह सामने आएगा कि कौन सी जाति, किस क्षेत्र में कितनी संख्या में है। इससे नीति निर्धारण में पारदर्शिता आएगी। यदि यह पाया गया कि पिछड़ी जातियों की आबादी अधिक है, तो उन्हें और अधिक आरक्षण देने का आधार तैयार होगा। साथ ही वे जातियां जो अभी तक आरक्षण से वंचित हैं, उन्हें भी उचित प्रतिनिधित्व और योजनाओं का लाभ मिल सकता है। यह कदम सामाजिक न्याय को मजबूती देने की दिशा में मील का पत्थर बन सकता है, खासकर जब हिंदी पट्टी राज्यों में सामाजिक असमानता के मुद्दे तीव्र हैं।
बिहार में आने वाले चुनावों से पहले इस कदम का विशेष महत्व है। बिहार में जातीय समीकरण बेहद प्रभावशाली रहे हैं और जातिगत जनगणना का मुद्दा राजनीतिक दलों का प्रमुख घोषणापत्र बन चुका था। ऐसे में बीजेपी का यह कदम न सिर्फ तेजस्वी यादव और कांग्रेस को रणनीतिक तौर पर बैकफुट पर ला सकता है, बल्कि ओबीसी और दलित वर्गों में नए समर्थन की जमीन भी तैयार कर सकता है। अब सवाल ये है कि क्या जनता इस फैसले को “राजनीतिक चाल” मानेगी या सामाजिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम?
हालांकि, हर पहल का दूसरा पहलू भी होता है। विशेषज्ञों की राय है कि जातिगत जनगणना से समाज में जातिवाद को नई ऊर्जा मिल सकती है, जिससे सामाजिक ताना-बाना प्रभावित हो सकता है। इससे जातिगत राजनीति को बढ़ावा मिलने की भी आशंका जताई जा रही है। सवाल यह भी है कि क्या इस गणना के आधार पर भविष्य में नीतियां सिर्फ जनसंख्या अनुपात पर आधारित होंगी, या सामाजिक समावेश और सशक्तिकरण भी प्राथमिकता में रहेगा? मोदी सरकार के इस कदम को चाहे जो भी नाम दें, लेकिन इतना तय है कि अब देश की राजनीति एक नए मोड़ पर आ चुकी है — और शायद यह मोड़ निर्णायक होगा।



